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बीते हुए कल से सबक लें

rahi
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देवेन्द्र राय-अपने दस वर्षों के सफर में झारखंड विधानसभा ने काफी कुछ स्याह-सफेद देखा। इस दौर में कई ऐसे मौके आए, जब इतिहास रचा गया। पर, कई ऐसे भी अवसर पैदा हुए, जब सदन को शर्मनाक स्थितियों का सामना करना पड़ा। महत्वपूर्ण यह कि कुछ अपवाद को छोड़ सदन के तमाम सदस्यों ने अपनी भूमिका का निर्वहन सही तरीके से नहीं किया। फलस्वरूप, विधानसभा अब तक अपने उद्देश्यों को सार्थक मुकाम तक नहीं पहुंचा सकी है। खासतौर से बात-बात पर सदन को बाधित करना और सतही मुद्दों को उठाकर हंगामा खड़ा करना अब किसी के लिए नई बात नहीं रही। जबकि, सदन की कार्यवाही का प्रत्येक क्षण बेहद कीमती होता है। उसे व्यर्थ करना, एक प्रकार से राज्य के हितों की उपेक्षा और जनता की गाढ़ी कमाई को बरबाद करना है। ऐसे में, सभी के लिए जरूरी है कि बीते हुए कल से सबक लेकर आने वाले दिन को सुनहरा बनाया जाए।
कह सकते हैं, सदन में विधायकों द्वारा पूछे गए प्रश्न वह आईना होते हैं, जिनमें उनका ज्ञान व सामाजिक सरोकार दिख जाता है। पर, कुछ को छोड़ अधिकतर विधायक दलीय सीमा में बंधे हुए दिखते हैं। उनके लिए पार्टी और व्यक्तिगत हित अक्सर सार्वजनिक हितों से बड़े हो जाते हैं। देखने वाली बात यह होगी कि इस मर्तबा पहली बार चुन कर आए विधायक सदन में क्या नजीर पेश करते हैं? क्योंकि, उन्हें अभी बहुत मौका नहीं मिला है। थोड़ा अवसर मिला भी तो बात सरकार बनने और बनवाने से आगे नहीं बढ़ सकी। इनके द्वारा अपनी क्षमता और दृढ़ता का प्रदर्शन करना अभी बाकी है। अपेक्षाएं सत्ता पक्ष और विपक्ष सबसे हैं। वह भी नए और पुराने सभी विधायकों से। इसलिए परीक्षा सभी को देनी पड़ेगी। विपक्ष को हर मुद्दे पर विरोध का सतही स्तर और सत्ता पक्ष को हुकूमत की हेकड़ी छोडऩी होगी। मुद्दे बहुत हैं, इन सभी की सजग पहचान करते हुए सर्वानुमति प्राप्त करने की कोशिश होनी चाहिए। सदन के सदस्यों को ‘होम वर्कÓ करते हुए सटीक सवाल पूछने होंगे। क्योंकि, सही उत्तर के लिए सही प्रश्न करना जरूरी होता है। एक विधायक जब सदन में सवाल पूछता है, तो पता चल जाता है कि वह क्या जानता है? उसके सलाहकार कैसे हैं? वह अपने क्षेत्र को, प्रदेश को, देश को और बदलते परिवेश को कितना करीब से जानता है? साफ है कि सदस्यों की सजगता का आभास उनके प्रश्नों से ही होता है। पिछले अनुभव बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। इसके अलावा प्रश्नों के उत्तर कैसे और किस स्तर के आते हैं? कितने प्रश्न बिना किसी जवाब के रह जाते हैं? यह भी कि कौन-कौन विधायक कैसे-कैसे प्रश्न उठाते हैं? और कितने एक भी प्रश्न नहीं पूछते? यह सब सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। इनके जवाब भविष्य में चलने वाली विधानसभा की कार्यवाही के बाद मिलेगा। इससे पहले द्वितीय विधानसभा का कटु अनुभव सबके सामने है। इसमें कुल 6977 की संख्या में प्रश्नों की सूचना स्वीकार हुई थी। इनमें 1829 अल्पसूचित, 3206 तारांकित, 1328 अतारांकित प्रश्न शामिल थे। इन सभी में 651 प्रश्नों के उत्तर सदन में मौखिक, जबकि 3007 सवालों के जवाब लिखित दिए गए। इस तरह बड़े पैमाने पर प्रश्नों के उत्तर दिए ही नहीं गए। इसी तरह 996 ध्यानाकर्षण सूचनाएं आईं, जिनमें मात्र 469 पर ही सरकार का वक्तव्य आया। इसी तरह 408 याचिकाओं की सूचना आई, इसमें पांच अस्वीकार और उन्नीस कार्यान्वित हुईं। शेष सदन की संबंधित समितियों के हवाले कर दिया गया, जो लंबित रह गईं। 773 निवेदन प्राप्त हुए। इसमें 46 अस्वीकार हुए और 42 के प्रतिवेदन सदन के पटल पर रखे जा सके। शेष लंबित रह गए। 850 सरकारी आश्वासनों से संबंधित दस कृत कार्य प्रतिवेदन पटल पर रखे गए। 74 विधेयक भी पारित हुए, जिनमें छह को विभिन्न कारणों से वापस लेना पड़ा। द्वितीय विधानसभा के और भी कई तथ्यों के साथ विधानसभा समितियों की कार्यशैली तक बहुत कुछ है, जिससे तृतीय विधानसभा के सदस्यों को सबक लेने की जरूरत है। अभी सूबे की हालत नाजुक दौर में है। नक्सल समस्या को लेकर केंद्र से सहयोग का सवाल हो या फिर अन्य संवेदनशील पक्ष। सभी का हल सूझबूझ से निकाला जा सकता है। यदि विधायकों ने सजगता दिखाई तो तस्वीर बदल भी सकती है। इस बार कई नौजवान, पढ़े-लिखे और जमीनी नेता चुन कर आए हैं। देखना होगा कि यह लोग क्या कुछ करते हैं? सबसे पहले प्रश्नकाल बाधित करने की शैली का परित्याग करना चाहिए। इसके लिए संयम और सजगता की जरूरत है। जबकि, सरकार का धर्म है कि वह पारदर्शी आचरण के साथ सभी प्रश्नों का सही और स्पष्ट जवाब दे। ऐसा होने से ही राज्य की तकदीर बदली जा सकती है। अभी तक प्रश्नकाल बाधित करने की कोशिश ज्यादा देखी जाती रही है। कई बार तो व्यक्तिगत राजनीति चमकाने की गरज से हंगामा मचा कर प्रश्नकाल बाधित कर दिया जाता है। यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रश्नकाल बाधित होने से सर्वाधिक नुकसान आम जनता को होता है। यदि खास महत्व का मुद्दा हो तो भी प्रश्नकाल बाधित नहीं किया जाना चाहिए। सदस्यों को चाहिए कि वे सरकार से सभी प्रश्नों का समय पर जवाब मांगे और वह भी संतोषजनक। इसके लिए सरकार को हर हाल में बाध्य किया जाना चाहिए। इसकी जगह प्रश्नकाल बाधित कर दिए जाने से सरकार को तमाम जनहित के मोर्चे पर जवाबदेही से बच निकलने का मौका मिल जाता है। संसदीय व्यवस्था में यह घातक परम्परा है। इसे हर हाल में नियंत्रित किया जाना चाहिए। यह तभी संभव है, जबकि विपक्ष सजग रहे और सत्ता पक्ष मुद्दों के प्रति संवेदनशील बने।
इसी तरह विधानसभा की विभिन्न समितियों को भी अपने दायित्व का सही निर्वहन करने की जरूरत है। कहना नहीं होगा कि विधानसभा के बीते दस वर्ष में इन समितियों में से अधिकतर ने अपने दायित्व का सही निर्वहन नहीं किया है। अधिकांश ने महज औपचारिकता निभाते हुए सिर्फ सुविधाओं का उपभोग किया, जबकि वे चाहते तो काफी कुछ कर सकते थे। भ्रष्टाचार का जो ग्राफ अभी दिख रहा है, उसमें भी कमी आई होती। इसी तरह नौकरशाही अभी की तुलना में अधिक जिम्मेदार बनी होती और सरकार पर ‘चेक एंड बैलेंसÓ की नकेल कसी रहती। वैसे, हर बार इनके गठन और उसके पश्चात संबंधित समितियों के अध्यक्षों व सदस्यों के साथ होने वाली प्रथम बैठक में सदन की समितियों को अपनी जागरूकता और लगातार कोशिशों से सरकार की लगाम कसे रहने का संदेश दिया जाता रहा है। साथ ही और भी कई तरह के आदर्श व जिम्मेदारियों का ज्ञान देने की परम्परा रही है। लेकिन, इसका नतीजा अमूमन उत्साहजनक नहीं रहता। विगत नौ वर्षों में 1,890 सरकारी आश्वासन लंबित हैं। सवाल यह कि इससे संबंधित समिति क्या करती रही? अब नए परिवेश में इनकी त्वरित समीक्षा जरूरी है। समितियों की अनुशंसाओं पर कार्रवाई न होने की आम शिकायत दूर करने का उपाय अधिक से अधिक बैठकें करना है। समितियां जब सदन का सत्र न चल रहा हो तो विभागीय पदाधिकारियों संग बैठक कर जनहित से जुड़ी समस्याओं के निराकरण का दवाब बना सकती हैं। सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की गहराई से समीक्षा की जा सकती है। योजनाओं के क्रियान्वयन में हो रही अनियमितता को उजागर कर दोषियों को चिह्नित करने के साथ संबंधित प्रतिवेदन सभा या अध्यक्ष को समर्पित किया जा सकता है, ताकि ससमय कार्रवाई सुनिश्चित की जा सके। इसके अलावा स्थल अध्ययन यात्रा पर जाने के पूर्व संबंधित जिले में चल रही योजनाओं की पूरी जानकारी हासिल कर लेना चाहिए। ऐसा करने से उनका भौतिक सत्यापन सही प्रकार से सुनिश्चित किया जा सकता है। योजनाओं की स्वीकृत राशि का भी पता लगाने की दरकार है। इस पर ध्यान दें कि प्राक्कलन कितनी बार पुनरीक्षित हुआ और इसके लिए जिम्मेवार कौन हैं? सीएजी के प्रतिवेदन में उठाई गई आपत्तियों पर विभागों द्वारा की गई कार्रवाई पर भी नजर रखें, तो बेहतर होगा। लोक लेखा समिति तथा सरकारी उपक्रम समिति द्वारा अब तक क्रमश: 14 और चार प्रतिवदेन दिए गए हैं, फिर भी अनगिनत आपत्तियां लंबित हैं। प्राक्कलन समिति विभागवार बजट प्राक्कलनों की सम्यक जांच कर बेहतर बजट प्रबंधन के उपाय सुझाएं। इससे जहां विकास कार्य पारदर्शी होंगे, वहीं काफी हद तक गड़बड़ी को रोका जा सकेगा। यह सब जितना जल्द हो सके, अच्छी बात होगी। (समाप्त)

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