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देवेन्द्र राय ::: पिछले दिनों हाईस्कूल के एक छात्र ने बड़े ही मासूम अंदाज में सवाल पूछा कि जब एक जिले को चलाने के लिए आईएएस और आईपीएस चाहिए तो देश और प्रदेश को चलाने के लिए किसी भी योग्यता की दरकार क्यों नहीं? मसलन विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री यहां तक कि राष्ट्रपति बनने के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं है। इन पदों के लिए भारत का कोई भी नागरिक जो सजायाफ्ता नहीं हो, पागल या दिवालिया नहीं हो, योग्य माना जाता है। यह सब कहां तक उचित है? छात्र का सवाल सुनकर मैंने उसे भारतीय लोकतंत्र से लेकर संवैधानिक व्यवस्थाओं और मान्यताओं के सभी तर्क रखे, लेकिन वह संतुष्ट नहीं हो सका। उसका कहना था कि इन सभी महत्वपूर्ण पदों के लिए हर हाल में शैक्षणिक मापदंड निर्धारित किया ही जाना चाहिए। यह एक बड़ी बहस है। टीएन शेषन जब मुख्य निर्वाचन आयुक्त थे तो उस समय भी यह बहस तेज हुई थी। हालांकि, उससे पहले भी जब-तब इस तरह की बहस छिड़ती रही है। पर, अब तक इस विषय को लेकर कोई बड़ी और निर्णायक बहस नहीं हुई। वैसे, तमाम तर्कों के साथ मैंने छात्र से यह भी कहा कि सामाजिक अनुभव किसी स्कूली शिक्षा अथवा डिग्री से कम नहीं होता। हमारे नेता अपने-अपने क्षेत्रों में व्यापक अनुभव रखने और लंबे संघर्ष के बाद राजनीति में आते हैं। इसलिए उन्हें शैक्षणिक योग्यता के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। बावजूद इसके पढ़े-लिखे लोग राजनीति में आएं तो सोने में सुहागा होगा। इस तरह हमने उस छात्र को संतुष्ट करने की भरसक कोशिश की। लेकिन, वह अंत तक हमसे सहमत नहीं हुआ। उसने एक सवाल और उठाया। कहा, राज्यसभा और विधान परिषद में विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित और काबिल लोगों को भेजने की परिकल्पना की गई है। ताकि, इनके अनुभव और योग्यता का लाभ देश व प्रदेश को मिल सके। लेकिन, आजकल राज्यसभा और विधान परिषद में वे लोग जा रहे हैं, जिन्हें अक्सर लोकसभा अथवा विधानसभा के चुनाव में आम मतदाताओं ने खारिज कर दिया होता है। यह उच्च सदन का अपमान नहीं तो और क्या है? कहना नहीं होगा कि मैं इस छात्र को संतुष्ट नहीं कर सका। शायद मेरे पास पुष्ट तर्क नहीं थे। संभव है, आगे चलकर उसके सवालों का संतोषजनक जवाब कोई दे सके? (समाप्त)
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