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नवरात्र शुरू होने के साथ झारखंड में अर्जन मुंडा मंत्रिमंडल पूर्ण हो गया। पर, काफी जद्दोजहद और नफा-नुकसान तौलने के बाद हुए इस कैबिनेट विस्तार ने कई सवाल भी छोड़े हैं। कह सकते हैं, असल चुनौती अब है। अर्थात, अलग-अलग विचारधाराओं का सटीक ‘काकटेलÓ बनाने, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के उमड़े ज्वार को थामने, सिस्टम को पटरी पर लाने और आम आदमी का विश्वास जीतने सहित कई चुनौतियों के पहाड़ सामने हैं। मुंडा को इन्हें पार करना होगा, तभी उनकी सरकार ‘स्मूथÓ होकर दौड़ सकेगी।
सरकार बनने और कैबिनेट विस्तार के बीच का घटनाक्रम बताने के लिए काफी है कि सबकुछ बेहद मुश्किल दौर से गुजरते हुए संभव हो सका। कठिनाईयां अभी खत्म नहीं हुई हैं। सत्ताधारी दलों में मंत्री पद से वंचित हुए विधायक खासे नाराज हैं। मुख्यमंत्री मुंडा के लिए इन्हें मनाना आसान नहीं होगा। खासकर खुद की पार्टी भाजपा के अंदर पैदा हुई चुनौती उन्हें चैन की सांस नहीं लेने देगी। इसके संकेत मिल रहे हैं। इसी तरह झामुमो, आजसू व जदयू की तरफ से भी दबाव की राजनीति झेलनी पड़ेगी। हालांकि, मुंडा ने जहां अपनी पार्टी में सबकुछ तय करने का जिम्मा राष्ट्रीय नेतृत्व को सौंप दिया है, वहीं सहयोगी दलों का मामला पूरी तरह उनके अध्यक्षों पर छोड़ स्वयं की भूमिका तैयार एजेंडे को लागू करने मात्र की बना ली है। साथ ही उन्होंने झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन को सरकार के समन्वय समिति का अध्यक्ष बनाकर विवादों को सुलझाने का साझा मंच भी तैयार कर लिया है। लेकिन, यह उनका हालिया फार्मूला है। आगे चलकर मुंडा को काफी-कुछ खुद निर्णय लेना होगा। एक-दूसरे के अहम टकराएंगे और प्राथमिकताओं को तय करने में भी झमेला फंसेगा। पंचायत चुनाव से लेकर धर्म परिवर्तन जैसे सवाल दलगत राजनीति के आड़े आएंगे। सहयोगी दलों के बीच विभागों और बोर्ड-निगमों का बंटवारा भी कम पेंच नहीं फंसाएगा। यदि तात्कालिक रूप से इन्हें हल किया भी गया तो आगे फेरबदल के दबाव की सियासत चलती रहेगी। कह सकते हैं, गठबंधन की सरकारों में यह सब तो चलता ही रहता है। लेकिन, महत्वाकांक्षा जब सीमा पार कर जाए, तो उसे पूरा करना किसी के लिए भी आसान नहीं रह जाता। मंत्री बनने के लिए जिस तरह की लाबिंग और दबाव का दौर चला, वह स्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक नहीं है। यह दौर अभी चलेगा। मंत्री नहीं बनने वाले बहुत समय तक चुप नहीं बैठने वाले। वे अभी से अपनी नाराजगी दिखाने लगे हैं। जैसे ही कोई विकल्प सामने होगा, सरकार को संकट में डालने से परहेज नहीं करेंगे। इसके खतरे मौजूद रहेंगे। मुंडा भी इसे बखूबी समझते हैं। सो, मलाईदार बोर्ड निगम के सहारे सभी को कुछ ना कुछ देने की व्यवस्था करने में जुटे हुए हैं। साथ में सिस्टम को पटरी पर लाने के साथ आम आदमी का भरोसा जीतने की भी हर संभव कोशिश कर रहे हैं। मुंडा अनुभवी नेता हैं और उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है। इनसे सभी को काफी उम्मीद भी है। तमाम संकटों के बीच उनके सामने भ्रष्टाचार के खिलाफ ईमानदार लड़ाई लडऩे की सबसे बड़ी चुनौती भी पेश है। इसकी आंच में अपने-पराए दोनों झुलस रहे हैं। ऐसे में, मुंडा का रुख तय करेगा की वह इस मोर्चे पर कितने सही साबित होते हैं। :::समाप्त:::
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