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‘लाल’ समस्या का काला सच

rahi
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इन दिनों देश का बड़ा हिस्सा नक्सली चुनौती से जूझ रहा है। इसे हल करने के लिए जहां केंद्र व नक्सल प्रभावित राज्य की सरकारें संयुक्त रूप से आपरेशन ग्रीन हंट चला रही हैं, वहीं विकास के मोर्चे पर ग्रामीणों का विश्वास जीतने के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया गया है। देखने-दिखाने और सुनने-सुनाने के लिए यह सब अच्छा लगता है। पर, सच्चाई कुछ और है। झारखंड के अंदर पुलिस वाले नक्सल प्रभावित जिलों में पोस्टिंग से भागते हैं। इससे बचने के लिए वे पैसा-पैरवी के किसी भी स्तर से गुजरने में परहेज नहीं करते। ‘जान बची तो लाखों पाए’ की तर्ज पर कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते। जबकि, सिविल विभाग के लोग इन इलाकों में पोस्टिंग के लिए लालायित रहते हैं। इसके लिए वे ‘सबकुछ’ करने से पीछे नहीं रहना चाहते। कारण, नक्सल प्रभावित जिलों में जहां विकास की मोटी रकम पहुंचती है, वहीं नक्सलियों की आड़ में सरकारी पैसा हजम करने का अच्छा सा मैकनिज्म डेवलप कर लिया गया है। मसलन, नक्सल इलाके में किसी पुल, स्कूल भवन, अस्पताल भवन या पंचायत भवन आदि के निर्माण का टेंडर होता है। ठेकेदार के साथ एक वर्ष से छह माह में कार्य पूर्ण करने का करार किया जाता है। फिर निर्माण स्थल पर विधिवत कार्य शुरू हो जाता है। लेकिन, चाल बेहद सुस्त, बल्कि नहीं के बराबर। जबकि, निर्माण कार्य से जुड़े विभागीय इंजीनियर निर्माण के निरंतर प्रगति की रिपोर्ट भेजते रहते हैं। इस क्रम में अक्सर कार्य समापन की तिथि से कुछ हफ्ते पहले निर्माण स्थल पर नक्सली विस्फोट हो जाता है। बाद में रिपोर्ट होती है कि कार्य लगभग पूर्ण था, जो विस्फोट में ध्वस्त हो गया। इसके बाद ठेकेदार-इंजीनियर-पुलिस व संबंधित अधिकारी, हर टेबल पर रिपोर्ट पुख्ता करार दे दी जाती है और निर्माण से जुड़ी समूची राशि में मामूली खर्च के साथ शेष सब हड़प। यह अलग बात है कि इसके लिए निर्माण वाले इलाके में प्रभावी नक्सली कंमाडरों से ‘सेटिंग’ करनी होती है। यह महज आरोप नहीं हैं, बल्कि इस तरह के कई मामलों में जांच लंबित है। कुछ में जांच के बाद कार्रवाई हुई, लेकिन महज खानापूरी के बाद मामला रफा-दफा कर दिया गया। नौकरशाही के दामन पर दाग के किस्से बहुत हैं। पर, दागी अफसरों के खिलाफ त्वरित और कठोर कार्रवाई के उदाहरण कम। अभी ‘सेटिंग-गेटिंग’ वह व्यवस्था बनी हुई है, जिसके सहारे ‘सात खून माफ’ की गुंजाइश तलाश ली जाती है। सिस्टम की इस खामी को दूर किए बिना शासन अपने दामन पर लगे दाग-धब्बों को नहीं धो सकता। इससे पहले हम लोगों को जागना होगा। ताकि, सब मिलकर शासन की नींद उड़ा सकें।
एक सवाल यह भी : अभी सुरक्षा बलों का दबाव कहिए या फिर कोई अन्य कारण। सूबे में हार्डकोर नक्सली कमांडर हिंसा छोड़ मुख्यधारा में वापसी कर रहे हैं। यह अच्छा संकेत है। पर, अभी जंगलों में दर्जनों खूंखार नक्सली कमांडर छिपे हुए हैं। इनके दस्ते भी मौजूद और सक्रिय हैं। तमाम ऐसे क्षेत्र हैं, जहां पुलिस अब तक नहीं पहुंच सकी है। यहां नक्सलियों का ही राज चलता है। आम ग्रामीण इनके विरोध का साहस नहीं जुटा पा रहे। ऐसे में, पुलिस को अभी और प्रभाव पैदा करने की जरूरत है, जबकि हिंसा छोड़ मुख्यधारा में लौटने वाले नक्सलियों को समाज में सम्मान के साथ जीने के लिए ईमानदार अवसर देने होंगे। अर्थात, कुछ ‘तुम’ बदलो, कुछ ‘हम’ बदलें की तर्ज पर शासन को जहां मुख्यधारा में लौटने वाले नक्सलियों को सामाजिक हक दिलाना होगा, वहीं विकास के पैमाने पर आम आदमी का विश्वास जीतना पड़ेगा। (समाप्त)

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