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जमीनी लोकतंत्र का करें स्वागत

rahi
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झारखंड में करीब तैंतीस साल बाद जमीनी लोकतंत्र की स्थापना होने जा रही है। यह सुखद क्षण है और इसका भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए। पर, पेसा के तहत पंचायत चुनाव का विरोध कर रहे सदान संगठनों को यह मंजूर नहीं। यह लोग अब भी हर हाल में चुनाव रोकने का प्रयास कर रहे हैं, जो ठीक नहीं। सजगता यह कि जैसे भी हो पहले पंचायती राज कायम होना जरूरी है। इसके नहीं होने से दस साल में झारखंड को चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हो चुका है। जहां तक मतभेद का सवाल है, तो इसे आगे तय किया जा सकता है। अभी चुनाव आवश्यक है।
अब तक पंचायत चुनाव नहीं होने के पीछे गलती किसी एक की नहीं, हम सबकी है। वह तो भला हो अदालत का कि उसने चाहा और चुनाव हो रहा है। राज्य शासन कोर्ट के आदेश का मात्र अनुपालक बना हुआ है। जहां तक सदानों का सवाल है, तो उनके भी अपने तर्क हैं। कई पंचायतें ऐसी हैं, जहां नब्बे से सौ फीसदी तक आबादी सदानों की है, जबकि वहां मुखिया का पद आदिवासी के लिए आरक्षित है। सो, सूबे में पंचायत चुनाव को लेकर एक बार फिर आदिवासी-सदान भागीदारी की जंग छिड़ गई है। इससे जहां सामाजिक समरसता खतरे में है, वहीं राजनीतिक प्रतिबद्धता भी कसौटी पर है। बड़ा सवाल यह कि सदान बहुल पंचायतें आदिवासियों के लिए आरक्षित क्यों हों? इस पर सबके अपने-अपने तर्क हैं और कोई पीछे हटने को तैयार नहीं। सदानों का तर्क है कि जिलों को नहीं, बल्कि पंचायतों को आरक्षण का आधार बनाना चाहिए। जिन पंचायतों में पचास फीसदी से अधिक आबादी सदानों की है, वह आदिवासियों के लिए आरक्षित नहीं होनी चाहिए। जहां तक आबादी का सवाल है तो 1931 की जनगणना में सदान-आदिवासी जनसंख्या लगभग बराबर थी। जबकि, 2001 की जनगणना में 26.8 प्रतिशत आदिवासी और 73.7 प्रतिशत गैर आदिवासी थे, जो अब और बढ़ गए हैं। यह पता करना कठिन है कि इसमें कितने नवागंतुक हैं। इसे मापने का कोई पैमाना नहीं। 1931 के खतियान को आधार बनाना कितना उचित है? यह बहस का विषय है। यहां सवाल समरसता का है। इतिहास गवाह है कि कोल विद्रोह (1831) को छोड़ हमेशा आदिवासी और सदान दोनों ने मिलकर अपने हितों की लड़ाई लड़ी है। ऐसा अब क्यों नहीं हो सकता? इसके लिए राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक स्तर पर प्रयास किया जाना चाहिए। अभी चुनाव कार्यक्रम घोषित होने के साथ प्रभावी हो चला है। जबकि, इसे रोकने में जुटे सदान संगठन विरोध प्रदर्शन के साथ अदालत का दरवाजा खटखटा रहे हैं। संयुक्त सदान संघर्ष मोर्चा सुप्रीम कोर्ट में पेसा के तहत चुनाव कराने के फैसले पर पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल कर चुका है। जबकि, आदिवासियों के लिए रिजर्व जिलों में महिलाओं और अनुसूचित जाति के आरक्षण को लेकर हाईकोर्ट में एक अलग मामला दायर किया गया है। वैसे, कानूनी लड़ाई अपनी जगह है और राज्य का विकास अपनी जगह। जहां समरसता और सदभाव रहता है, वहां समृद्धि बरस पड़ती है। सदानों के विरोध के कारणों को दूर करने के लिए सजग प्रयास हों, तो यह समस्या बहुत कठिन नहीं। बहरहाल, पेसा कानून के तहत बने आरक्षण प्रावधानों के अलावा, सूबे में मानकी-मुंडा, पाहन समेत अन्य परंपरागत व्यवस्था वर्षों से कायम है, जिसके साथ तालमेल रखते हुए पंचायती राज कानून को जमीन पर उतारा जाए तो दुनिया के लिए यह नायाब तोहफा होगा। वैसे, फिर अंत में वही बात की जैसा भी हो, पहले जमीनी लोकतंत्र कायम तो हो, अपने अस्तित्व में तो आए। आगे बदलाव होते रहेंगे।

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