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सिद्धार्थ शंकर राय की अंतिम यात्रा में हुईं राजनीतिक-प्रशासनिक भूलें स्वस्थ लोकतंत्र और सुसंस्कृत समाज के लिये ठीक नहीं। इस क्रम में थोड़ी सजगता और शराफत के साथ उच्च विचारों को जगह मिली होती तो वह गलतियां नहीं होती, जो कोलकाता में डा. राय की अंतिम विदाई के दौरान घटित हुईं। सबसे पहले तो तृणमूल कांग्रेस ने सबकुछ एक प्रकार से ‘हाईजैकÓ कर लिया था। शवयात्रा कितने बजे, किन मार्गों से गुजरेगी और इस दौरान कहां-कहां क्या होगा? आदि, सारा कुछ तृणमूल के लोग ही कर रहे थे। अन्य दलों के नेता, यहां तक कि सिद्धार्थ शंकर राय ने जिस कांग्रेस से मरते दम तक निष्ठा नहीं तोड़ी, उस पार्टी के नेता भी उपेक्षित रहे। इतना ही नहीं डा. राय के पार्थिव शरीर को प्रदेश कांग्रेस कार्यालय भी नहीं ले जाने दिया गया। इसके लिए वहां की गई तैयारियां धरी रह गईं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मानस भुईंया ने इस पर गहरी आपत्ति जताते हुए खुलकर नाराजगी जाहिर की। कांग्रेस के कई अन्य नेता भी इससे क्षुब्ध हैं। वाम दलों सहित अन्य पार्टियों के नेताओं में कई तो इन्हीं सब झमेलों के कारण डा. राय की अंतिम यात्रा में शामिल ही नहीं हुए, कुछ हुए तो उनका अनुभव भी कटु रहा। बेशक डा. राय उर्फ मानूदा ममता को पसंद करते थे, राजनीति में ममता को उनके मानूदा ने ही आगे बढ़ाया, सहयोग दिया और समय-समय पर मार्गदर्शन देते रहे। इसका यह मतलब नहीं कि डा. राय सिर्फ ममता के समझे जाएं। उनसे जुडऩे-चाहने के संदर्भ में प्रत्येक बंगालवासी और देशवासी को हक है। ऐसे में, डा. राय की अंतिम यात्रा के दौरान ममता की पार्टी तृणमूल द्वारा दिखाया गया आचरण ठीक नहीं माना जा सकता। दूसरी बड़ी भूल प्रशासनिक स्तर पर हुई, जो नहीं होनी चाहिए थी। राजकीय सम्मान जताने के लिए जब डा. राय के पार्थिव शरीर को तोपों की सलामी दी जा रही थी तो उस वक्त श्मशान में राज्य सरकार का एक भी वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित नहीं रहा। सम्मान के वक्त डा. राय के पार्थिव शरीर को तिरंगे झंडे में भी नहीं लपेटा गया था। तब वहां मौजूद नेता प्रतिपक्ष पार्थ चटर्जी ने इस पर आपत्ति की। बताते हैं, मौके पर उपस्थित पुलिस वालों ने कहा कि उनके पास तिरंगा झंडा उपलब्ध नहीं है। तृणमूल सब कर रहा है, यदि आपके पास झंडा हो तो दे दें, हम शव को उससे लपेट देंगे। अंतत: बिना झंडे के ही राजकीय सम्मान का कोरम पूरा हुआ।
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