- 16 Posts
- 27 Comments
कहते हैं, सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार। गंगासागर, अर्थात वह स्थल जहां आकर पतित पावनी गंगा सागर में मिल जाती हैं, जो सागरतीर्थ (सागरद्वीप) के नाम से विख्यात है। पश्चिम बंगाल के दक्षिण चौबीस परगना जिले में स्थित इस अदभुत संगम स्थल तक पहुंचना अपने आप में बेहद रोमांचकारी है। करीब सवा दो लाख की आबादी वाला सागरद्वीप वर्ष भर सूना पड़ा रहता है, लेकिन मकर संक्रांति आते ही यह दुधिया रोशनी से जगमगा उठता है। इस मौके पर यहां लगने वाले गंगासागर मेले में हर बार की तरह विविध तरह के साधु-सन्यासी आकर्षण पैदा करने पहुंच चुके हैं। रंग-बिरंगे खिलौने और तरह-तरह के सामान से अटी दुकानों की कतार सजने लगी है। तीर्थयात्रियों की सेवा में विभिन्न स्वयंसेवी संस्थाएं जुट गई हैं। सागरतीर्थ का इतिहास बेहद समृद्ध है। इसमें किवंदंतियों से लेकर तमाम ऐतिहासिक साक्ष्य भी मौजूद है। पर, इन सभी के ऊपर आस्था सबसे भारी है।
‘सागरतीर्थ’ का अस्तित्व और महत्व
पृथ्वी पर गंगा के आने से पहले भी ‘सागरतीर्थ’ का अस्तित्व और महत्व था। इसका जिक्र 1937 में प्रकाशित बांग्ला पत्रिका ‘हरकारा’ के एक अंक में मिलता है। ‘हरकारा’ में लिखा है, …यहां जो एक विशाल मंदिर है, वह लोकोक्तियों के अनुसार चौदह सौ वर्ष पहले ईसवी सन 437 में बना। इस मंदिर में कपिल मुनि नामक एक देवतुल्य महात्मा की मूर्ति है, जिसे जयपुर राजा के संरक्षण में गुरु संप्रदाय ने प्रतिष्ठित किया था। बाद में रामनंदी संप्रदाय के संन्यासियों ने इसे अपना आराध्य स्थल बनाया।
इसके अलावा 1683 में जेम्स ने अपनी पुस्तक में सागरद्वीप में मंदिर होने की बात लिखी है। 1727 में हेमिल्टन और सर एचएच विल्सन ने अपनी पुस्तक में बरगद के पेड़ के नीचे एक मंदिर, जिसमें रामचंद्र और हनुमान की मूर्तियां होने का उल्लेख किया है। मंदिर के बगल में एक आश्रम और पीछे जलकुंड होने का भी वर्णन है। समुद्र के किनारे चौड़े होने के कारण मंदिर और कुंड समुद्र के गर्भ में समा गये, इसके बाद बने और दो मंदिर भी समुद्र में विलीन हो गये। कपिल मुनि मंदिर के सेवायत श्रीमद पंच रामानंदी निर्वाणी अखाड़ा, हनुमानगढ़ी, अयोध्या के महंतों द्वारा 1971 में स्थापित अखाड़े भी देखने को मिलते हैं। 1973 में समुद्र से एक किमी. दूर मंदिर के सेवायतों ने वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया। पहले यह टीन और काठ से बना हुआ था, जो आज पक्का बन गया है। मंदिर में 6 शिलाओं पर छह मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां लक्ष्मी, घोड़े को पकड़े राजा इंद्र, गंगा, कपिलमुनि, राजा सगर और हनुमान जी की हैं। मंदिर के बगल में साधु-संतों एवं तीर्थयात्रियों के लिए धर्मशाला बनी हुई है। अखाड़े के महंत ज्ञानदास के संरक्षण और निर्देशन में वर्तमान मंदिर का संचालन होता है।
सोलहवीं सदी में जेसोर राजा के अधीन था सागरद्वीप
सोलहवीं सदी में संपूर्ण सागरद्वीप का इलाका जेसोर के राजा प्रतापादित्य के अधीन था। यह तथ्य राधानंद मुखर्जी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ इंडियन थिपिंग’ पढऩे से पता चलता है। 1822 में यहां रास्ता बनाने का काम आरंभ हुआ। उसके बाद सागरद्वीप में लोगों की आवाजाही शुरू हुई। 1932 में अंग्रेजों ने जब इस इलाके की जनगणना कराई तो यहां की कुल आबादी 19445 पाई गई थी। सागरद्वीप का एक छोर बंगाल की खाड़ी है, तो दूसरा छोर बांग्लादेश। सुंदरवन को स्पर्श करता हुआ अथाह जलराशि वाला यह संपूर्ण क्षेत्र 27706 वर्ग किमी. तक फैला है।
गंगासागर जाने में पहले लगते थे तीन दिन
गंगासागर मेले में तीर्थयात्रियों को पहुंचने में पहले नदी मार्ग से तीन दिन का समय लग जाता था। जंगली जानवरों का भी डर बना रहता था। अतीत में सुख-सुविधाओं का अभाव, देशी नौकाओं में असुरक्षित यात्रा आदि के चलते गंगासागर सर्वाधिक कष्टमय तीर्थयात्रा की ख्याति पा चुका है। 1951 में पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री डा. विधानचंद्र राय ने जब इस इलाके का दौरा किया तो इसका चेहरा थोड़ा पलटा, 1954 में आचार्य विनोबा भावे ने भी गंगासागर का दौरा किया था। 1977 में दिवंगत प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जब गंगासागर स्नान करने आये, तो मेले का स्वरूप कुछ और बदला। 1984 में पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने जिला परिषद व यूथ हास्टल का यहां उद्घाटन किया था, तब से कोलकाता से गंगासागर आने-जाने की व्यवस्था सुधरी। अब स्थिति पूरी तरह बदल गयी है। दो वर्षों से सागरद्वीप पर मूलभूत सुविधाओं का विकास, मेले के दौरान यात्री दबाव पर लगातार सतर्क निगरानी, देशी नौकाओं व मच्छीमार ट्रालरों द्वारा यात्री ढोने पर प्रतिबंध सहित कई अन्य कड़ाई बरत कर प्रशासन ने गंगासागर मेले को काफी सुरक्षित बना दिया है।
लंबा सफर तय करके पुण्य कमाने पहुंचते हैं लोग
कोलकाता से सड़क मार्ग और जलपथ से कुल 135 किमी. का लंबा सफर तय कर सागर तट पर उतरना किसी भी व्यक्ति के लिए सुखद और रोमांचकारी अनुभूति हो सकती है। बस स्टैंड से आगे बढ़ते ही समुद्री झाडिय़ों के बीच से झांकता डीएम का बंगला, जिला परिषद का भवन और मेला कार्यालय से अनायास ही नजरें टकरा जाती हैं, लेकिन चंचल चित्त को तभी शांति मिलती है, जब चंद मिनटों में ही व्यक्ति खुद ब खुद कपिल मुनि के मंदिर तक खिंचा चला आता है। मंदिर के सामने से एक चौड़ा रास्ता का आकार पाता है, जो सीधे समुद्र के किनारे तक चला जाता है। इस चौड़े रास्ते के दोनों छोर से दूर-दूर तक बालू की रेत पर आस्था की रौनक दमकती रहती है।
मेला शुरू होते ही उभर आती है आधुनिक शहरी सभ्यता
गंगासागर मेला शुरू होने के साथ ही समुद्र की रेत पर एक अस्थायी आधुनिक शहरी सभ्यता का आकार उभर आता है, जिसमें साधु-संतों के शिविर, तीर्थयात्री शिविर, अस्थायी अस्पताल, डाक-तार सेवा के शिविर, मीडिया के लोगों के लिए शिविर, हाट-बाजार और जेल से लेकर थाना तक की उपस्थिति देखी जा सकती है। सागर तट पर स्वच्छ जल की लगातार व्यवस्था व विद्युत आपूर्ति सबकुछ जुटा लिया जाता है। सबकुछ सामयिक, अस्थायी मकर संक्रांति के पावन पर्व पर सदियों से लगते आ रहे गंगासागर मेले में भारत के हर हिस्से तथा पड़ोसी देशों से आने वाले लगभग 5 लाख श्रद्धालुओं के लिए उपलब्ध कराया जाता है। अपनी रंगारंग परंपरागत पोशाकों में सागर तट पर पधारे तीर्थयात्रियों का जमावड़ा देखते ही बनता है। इन दिनों यह क्षेत्र लघु भारत का पर्याय बन जाता है। असंख्य तीर्थयात्री रेत पर ही सोकर रात गुजारने में सुख की अनुभूति करते हैं। 13 जनवरी को 12 बजे रात के बाद से ही श्रद्धालुओं का गंगासागर में पुण्य स्नान करने का जो तांता लगता है, वह 14 जनवरी की देर शाम तक जारी रहता है।
दो रास्तों से होकर गंगासागर पहुंच सकते हैं श्रद्धालु
गंगासागर जाने के लिए दो रास्ते हैं, लेकिन ये दोनों समुद्री रास्ते हैं। एक रास्ता नामखाना चेमागुड़ी रूट कहलाता है और दूसरा हारवुड प्वाइंट-कचूबेडिय़ा। इन दोनों रूटों यानी नामखाना और हारवुड प्वाइंट तक का सफर बस से तय किया जाता है। हारवुड प्वाइंट को लाट नंबर आठ भी कहते हैं। यहां पहुंचने के बाद समुद्री रास्ता पार करना पड़ता है। यहां तक पहुंचने के लिए बसें हावड़ा स्टेशन, बाबूघाट और धर्मतल्ला से आसानी से मिल जायेंगी। गंगासागर पहुंचने के लिए हारवुड प्वाइंट-कचूबेडिय़ा का समुद्री रास्ता ठीक माना जाता है। इस समुद्री रास्ते को जलपोत से पार करने में करीब 30 से 35 मिनट लगते हैं। इसके बाद कचूबेडिय़ा से कतार में खड़ी सरकारी बसें मिलेंगी। वहां से किसी भी बस में सवार होकर घंटे भर में गंगासागर धाम पहुंचा जा सकता है। यहां से धाम की दूरी 30 किमी. है।
कपिल मुनि मंदिर में सालों भर होती है नियमित पूजा-अर्चना
देश भर में दूर-दराज के क्षेत्रों से आने वाले श्रद्धालु अब भी मानते हैं कि गंगासागर यात्रा सबसे कठिन है। यहां जान जोखिम में डालकर पहुंचना पड़ता है। काफी समय से यह प्रचारित था कि कि कपिल मुनि मंदिर साल भर पानी में समाया रहता है। केवल मकर संक्रांति पर्व के मौके पर ही यह मंदिर बाहर निकलता है, ताकि श्रद्धालु दर्शन कर सकें। लेकिन, अब स्थिति यह है कि साल में किसी भी दिन आप यहां पहुंचकर स्नान, पूजा-अर्चना कर सकते हैं और जहां तक मंदिर का प्रश्न है, वहां पर भी साल भर पानी से दूर सुरक्षित रहकर नियमित पूजा-अर्चना होती है।
Read Comments