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स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती के मौके पर मौजूदा समाजिक-राजनीतिक परिवेश में क्रांतिकारी सुधार के लिए दृढ़ संकल्प लेने की जरूरत है। महज संकल्प ही नहीं उसे शतप्रतिशत जमीन पर उतारने का ईमानदार प्रयास भी होना चाहिए। इसके लिए हम सभी को आगे आना होगा। ऐसी मशाल जलानी पड़ेगी, जो अंदर-बाहर चौतरफा अंधकार का नाश कर सके। यह होने से ही स्वामी विवेकानंद के सपनों को साकार किया जा सकता है। सभी जानते हैं कि राजनीति में शुचिता, संस्कृति और शालीनता का होना जरूरी है। विरोध का तरीका ऐसा नहीं होना चाहिए, जिससे किसी के मान-सम्मान को ठेस पहुंचे। इसी तरह नेताओं की भाषा भी बेहद संयमित और शालीन होनी चाहिए। भारतीय लोकतंत्र हमेशा से इसके लिए जाना जाता रहा है। यहां की संसदीय परंपरा में पक्ष-विपक्ष तर्कपूर्ण और मुद्दा आधारित बहस करते आए हैं। लेकिन, हाल के वर्षों में यह परंपरा पीछे छूटती जा रही है। व्यक्तिगत आक्षेप से लेकर एक-दूसरे के प्रति खुलकर अपशब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। सभी हदों को पार करते हुए बेतुके और अशोभनीय आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल पड़ा है। पश्चिम बंगाल में यह सब इन दिनों कुछ ज्यादा ही होने लगा है। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी, मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, आवास मंत्री गौतम देव, वाममोर्चा के चेयरमैन विमान बोस सहित अन्य कई नेता आए दिन मंचों से लेकर प्रेस वार्ताओं तक विरोधियों के खिलाफ आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करने से पीछे नहीं हट रहे हैं। इनमें से किसी को भी इस बात का ख्याल नहीं कि उनकी बातों को जनता किस आलोक में ले रही है। पिछले दिनों तृणमूल कांग्रेस के नेता श्रीकांत घोष की ओर से हावड़ा सहित अन्य कुछ स्थानों पर एक होर्डिंग लगवाई गई है। इसमें एक तरफ तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी तथा दूसरी तरफ राज्य के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की आदमकद तस्वीर बनी है। होर्डिंग पर सत्ता परिवर्तन के नारे लिखने के साथ ममता बनर्जी को आते हुए एवं बुद्धदेव भट्टाचार्य को जाते हुए दिखाया गया है। ममता की तस्वीर पर लिखा है, आमी आसछी (मैं आ रही हूं) तथा बुद्धदेव की तस्वीर पर आमी जाच्छी (मैं जा रहा हूं) लिखा गया है। होर्डिंग पर मुख्यमंत्री के बारे में इस तरह से टिप्पणी करने का माकपा नेताओं ने कड़ा विरोध किया है और इसका जवाब देने के लिए यह लोग भी कुछ इसी तरह की होर्डिंग, बैनर व पोस्टर बनवाने की तैयारी में जुटे बताए जाते हैं। यह सब अच्छी परंपरा नहीं है। लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन दूसरे के संबंध में कुछ कहने से पहले देखना चाहिए कि उसे किस स्तर तक जाने की जरूरत है। इसके लिए आदर्श चुनाव आचार संहिता का अवलोकन किया जा सकता है। विरोध करें, लेकिन इसका तरीका सामने वाले को नीचा दिखाने वाला नहीं होना चाहिए। लंबे समय से बंगाल साहित्य और संस्कृति का गढ़ रहा है। यहां के लोग आज भी छोटी-बड़ी बातों पर बारीक चर्चा करते हैं। जहां तक राजनीति की बात है, तो प्रतिदिन चौक-चौराहे से लेकर राईटर्स विल्डिंग तक इसकी गहरी समीक्षा होते हुए कोई भी देख और महसूस कर सकता है। ऐसे में, पक्ष-विपक्ष को चाहिए कि वह संतुलित और सजग राजनीति करते हुए कुछ भी बोलने से पहले उसे परखे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो बंगाल की प्रबुद्ध जनता उन्हें कभी माफ नहीं करेगी। वैसे भी बंगाल की संस्कृति प्रेम-भाईचारा और सबको गले लगाने की रही है। बंगाल की गरिमा और संस्कृति को दूषित करने का हक किसी को भी नहीं दिया जा सकता है। ऐसा करने वाले को यहां अंतत: खारिज कर दिया जाता रहा है। इसलिए सभी को चाहिए कि वह समय रहते संभल जाए।
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